ओन्को कैंसर केयर सेंटर, हैदराबाद के सीनियर मेडिकल ऑन्कोलॉजिस्ट डॉ शिखर कुमार इस ब्लाॅग में फेफड़ों के कैंसर के इलाज में एडवांसमेंट के बारे में लिखते हैं।
एक युवा न्यूरोसर्जन पॉल कलानिथि ने अपने जीवन के बारे में एक नाॅवेल, व्हेन ब्रीथ बीक्स एयर में बताया है कि कैसे उन्हें मई 2013 में चैथी स्टेज का मेटास्टेटिक, नॉन-स्मॉल सेल लंग कैंसर का पता चला था। जिस वजह से पॉल का करियर अचानक रुक गया।
किस्मत से, उन्हें पता चला कि उनके कैंसर में एपिथेलियल ग्रोथ फैक्टर रिसेप्टर (ईजीएफआर) में ड्राइवर म्यूटेश है और इस प्रकार वह कीमोथेरेपी से बच कर, तारसेवा (एर्लोटिनिब) नामक एक ओरल दवा के साथ इलाज शुरू कर सकते हैं।
शुरूआत में, उनका ट्यूमर उपचार के प्रति अच्छी प्रतिक्रिया दे रहा था और धीरे-धीरे वह अपने जीवन की पटरी पर वापस लौट रहे थे। हालांकि, कुछ महीनों के भीतर उनका कैंसर बढ़ा, जिसका सीधा प्रभाव उनके स्वास्थ्य पर पड़ा। पाॅल ने इंट्रावेनस कीमोथेरेपी शुरू की, लेकिन उनके कैंसर पर इसका कोई प्रभाव नहीं पड़ रहा था। इसके साथ ही उनपर दवाओं के कई दुष्प्रभाव भी सामने आने लगे थे।
आखिरकार, मार्च 2015 में उनका निधन हो गया और उनकी पत्नी लुसी ने उनकी नाॅवेल को पूरा किया।
फेफड़ों का कैंसर शब्द ही ऐसा है, जिससे आज भी आंखों के सामने अपना आखिरी वक्त जीने वाले मरीज़, कमजोर, अस्पताल के बिस्तर पर पड़ा हुआ कोई व्यक्ति और घरघर वाली खांसी की भयानक छवि उजागर होती है। यह सच है कि लंग कैंसर एक बहुत ही गंभीर बीमारी है। यह भारत में पुरुषों में सबसे आम कैंसर है और कैंसर से संबंधित मौत का एक प्रमुख कारण भी है।
यह अनुमान लगाया गया है कि भारत में प्रत्येक 68 पुरुषों में से 1 को अपने जीवनकाल में फेफड़ों का कैंसर होता है। लगभग 45 प्रतिशत रोगी चैथी स्टेज (मेटास्टेटिक) रोग के साथ होते हैं, और केवल 10-15 प्रतिशत रोगी रोग के प्रारंभिक चरण (पहले चरण पहले और दूसरे) में होते हैं।
फेफड़ों के कैंसर की बढ़ती घटनाओं में तंबाकू का उपयोग और वायु प्रदूषण सबसे बड़ा जोखिम कारक है। लेकिन उन रोगियों में फेफड़ों के कैंसर के मामलों के बढ़ते अनुपात का निदान किया जा रहा है जिन्होंने अपने जीवन में कभी सिगरेट या बीड़ी नहीं पी है।
फेफड़े के कैंसर का विकास करने वाले धूम्रपान न करने वालों में ईजीएफआर में ड्राइवर म्यूटेशन होने की संभावना अधिक होती है।
पिछले कुछ सालों में, फेफड़ों के कैंसर के बारे में हुए अध्ययनों में कई नई जानकारी सामने आई है। जिसमें कई नए जेनेटिक म्यूटेशन की पहचान की गई। कई नई दवाएं भी विकसित की गई हैं जो, इन म्यूटेशन को टारगेट करती हैं। जिसके बेहतर परिणाम सामने आए हैं, जिसमें इस लंबी बीमारी को नियंत्रित करने के साथ-साथ, कुछ मामलों में पूरा इलाज भी हुआ है।
टैग्रिसो (Tagrisso) (Osimertinib) तीसरी जनरेशन की ईजीएफआर विरोधी दवा है। यह तारसेवा (Tarceva) (एर्लोटिनिब (Erlotinib)) की तुलना में बहुत अधिक शक्तिशाली है और कैंसर के इलाज में विशेष रूप से सक्रिय है जब यह मस्तिष्क में फैल जाता है। अध्ययनों की मानें तो, एर्लोटिनिब की तुलना में ओसिमर्टिनिब रोगी के जीवन की गुणवत्ता को कई महीनों तक बढ़ाता है।
एक अध्ययन में, ओसिमर्टिनिब (Osimertinib) शुरू करने वाले 54 प्रतिशत रोगी फेफड़ों के कैंसर के निदान के 3 साल बाद तक जीवित रहे थे। यह उन पुराने दिनों से बहुत अलग है जब चैथी स्टेज के फेफड़ों के कैंसर के रोगियों का औसत जीवन महज कुछ महीनों तक होता था, वर्षों में नहीं!
टैग्रीसो की तरह, फेफड़ों के कैंसर के इलाज में और भी कई सफलता की कहानियां हैं। रोग के सभी चरणों में फेफड़ों के कैंसर के उपचार में इम्यूनोथेरेपी जैसी नई उपचार रणनीतियाँ अब मानक बन गई हैं, क्योंकि उन्हें प्रबंधनीय दुष्प्रभाव होने पर इलाज की संभावना में सुधार करने के लिए दिखाया गया है।
यह महत्वपूर्ण है कि फेफड़े के कैंसर का उपचार एक बहु-विषयक सेटिंग में हो, जिसमें पल्मोनोलॉजिस्ट/मेडिकल ऑन्कोलॉजिस्ट/रेडिएशन ऑन्कोलॉजिस्ट और एक थोरैसिक सर्जन के बीच समन्वय हो। इस तरह से रोगी बेहतर केयर और मिल सकती है, जसे लंबे वक्त तक अच्छे परिणाम देखने को मिलते हैं।
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