वो कहते हैं न जब इंसान का बुरा वक्त आता है, तो उस मरीज को ठीक करने वालों में एक डाॅक्टर के साथ-साथ एक देखभाल कर्ता का भी बराबर का हाथ होता है। और जब परिवार में कोई ऐसी आपत्ति आन पड़े जिसके नाम से ही लोग कांप जाए, तो ऐसे में सबको संभाल कर मरीज को उस परेशानी से बाहर निकालना उस देखभाल कर्ता के लिए किसी बड़ी चुनौती से कम नहीं है। जब बात कैंसर की हो तो इसका नाम ही काफी है। कैंसर एक ऐसी बीमारी है, जिसके नाम से ही लोग कांप उठते हैं। कैंसर का सफर एक मरीज के साथ-साथ उसके परिवार की भी जिंदगी में काफी बदलाव लाता है।
कैंसर का सफर एक मरीज के साथ-साथ उसके परिवार वालों के लिए भी काफी चुनौती पूर्ण होता है। कैंसर की बीमारी परिवार के लिए एक आपदा तब बन जाती है, जब परिवार आर्थिक रूप से मजबूत न हो। एक किसान परिवार से ताल्लुक रखने वाले झारखंड के गोड्डा जिले के रहने वाले में रहने वाले ब्रजकिशोर की कहानी कुछ ऐसी है।
कैंसर के बारे में कैसे पता चला?
कोरोना माहामारी के बीच ब्रजकिशोर के परिवार को जब उनके 47 वर्षीय चाचा जी सुबोधा झा के मुंह में कैंसर के बारे में पता चला तो मानो मुसीबतों का सारा पहाड़ ही टूट गिर पडा हो। साल 2020 पूरी दुनिया के साथ-साथ उनके परिवार के लिए भी काफी परेशानी भरा था, ऐसा इसलिए क्योंकि उन्हें अपने चाचा जी के कैंसर के बारे इस दौरान पता चला।
अपने चाचा जी के बार-बार मुंह में दर्द और पानी आने की शिकायत के बाद उन्होंने उनका इलाज एक डेंटिस्ट से कराया। परिवार को लगा था कि उन्हें दांत में कीडा लगने के चलते ऐसा परेशानी हो रही है। जब उन्होंने डाॅक्टर को दिखाया तो कुछ वक्त बाद चाचाजी को मुंह को खोलने तक में परेशानी हो रही थी। जिसके बाद सीटी स्कैन कराया गया।
कोरोना के बीच कैंसर से जंग
इस बारे में ब्रजकिशोर जी ने बताया कि कोरोना माहामारी के बीच उन्हें अपने चाचा का इलाज कराने में काफी परेशानियों का सामना करना पडा। दांत में दर्द की शिकायत के बाद देवघर के एक अस्पताल में उन्होंने सबसे पहले उन्हें दिखाया, जहां डाॅक्टरों की ओर से उन्हें ठीक इलाज तक नहीं मिल पाया। एक किसान परिवार से आने वाले सुबोध झा, खेती बाड़ी करते हैं, जिनके लिए कैंसर जैसी बीमारी का इलाज कराना काफी परेशानी भरा था।
अपने चाचाजी की देखभाल करने वाले ब्रजकिशोर ने बताया कि इससे पहले उन्हें कई अस्पतालों में काफी हद तक लूटा भी, जहां देवघर के एक अस्पताल में उन्हें कैंसर की संभावना के बारे में पता चला। अपने चाचाजी का इलाज कराने के दौरान उन्होंने अस्पतालों में महंगे इलाज के लिए पैसे के अभाव के चलते आयुष्मान कार्ड की मदद लेना चाही, लेकिन कई अस्पतालों ने कार्ड के आधार पर इलाज करने से मना कर दिया।
देखभाल कर्ता ब्रजकिशोर बताते हैं कि उन्होंने इस दौरान उन्हीं अस्पतालों का दौरा किया जहां पर यह आयुष्मान कार्ड प्रभावी हो, लेकिन अस्पतालों की मनमानी के चलते उनकी एक न चल सकी। जहां से वह अस्पताल उनसे बीपीएल कार्ड की मांग कर रहे थे, ऐसे परेशानी भरे वक्त में बीपीएल कार्ड बनने का इंतजार करना उनके चाचाजी के लिए जाहिर तौर पर सही नहीं था। उन्होंने बताया कि अस्पतालों के इस रैवेये के चलते ब्रजकिशोर ने ऑनलाइन पोर्टल पर शिकायत भी दर्ज की थी।
देवघर के अस्पताल में बायोप्सी कराई गई, जिसकी रिपोर्ट 15 दिन बाद आई। जिसमें पता चला कि उनके चाचा जी को कैंसर है। जहां ऑपरेशन के लिए उनसे अस्पताल द्वारा बार-बार बीपीएल कार्ड की मांग की जा रही थी। आर्थिक तंगी के चलते ब्रजकिशोर के पास किसी और शहर में इलाज कराने का विकल्प भी नहीं था। ऐसे में उन्हें डाॅक्टर के आने का भी काफी इंतजार करना पडता था, क्योंकि वह डाॅक्टर रोजाना नहीं बैठते थे।
Onco.com ने ऐसे की मदद
इस दौरान ही उनके लगभग 50 हजार से ज्यादा खर्चा लग चुका था। इस बीच एक दिन ब्रजकिशारे ने Onco.com अचानक से आॅनलाइन के बारे में देखा, जहां उन्होंने अपनी सारी जानकारी भरी, कंपनी से तुरंत 10 मिनट के भीतर ही उन्हें काॅल आ गया। फोन पर उन्होंने Onco.com को अपने चाचा जी के कैंसर के बारे में पूरी जानकारी दी। जहां पूरे देवघर में उनका आयुष्मान कार्ड कहीं पर भी काम नहीं आ रहा था, वहां इसी कार्ड के आधार पर रांची के एक अस्पताल में उनके चाचा जी के इलाज के एक अस्पताल Onco.com दवारा चयनित कराया गया। अस्पताल में जाते ही 10 दिन बाद उन्हें ऑपरेशन की तारीख मिल गई। जहां उनका ऑपरेशन हुआ। इलाज की पूरी प्रक्रिया के दौरान Onco.com की टीम उनके साथ संपर्क में रही। कब कौन सा टेस्ट होना है, और डाॅक्टर की राय हर वक्त Onco.com के केयर मैनेजर ब्रजकिशोर से जानकारी लेते रहेे। ऐसे में अकेले चाचा जी की देखभाल करने वाले ब्रजकिशोर को काफी हद तक सहारा भी मिला।
इस दौरान अस्पताल में उनकी देखभाल करने वाले केवल ब्रजकिशोर ही थे। जिन्होंने पूरे वक्त रेडिएशन के बाद उनकी देखभाल की, जहां उनके चाचाजी को हल्के दुष्प्रभावों का भी सामना करना पड़ता था, जैसे कि उन्हें हाथ उठाने में परेशानी महसूस होती थी, उनके मुंह में हर 15 मिनट में पस भर जाता था, जिसकी सफाई ब्रजकिशोर को करनी पड़ती थी। ऐसे में ब्रजकिशोर के साथ उनके दूसरे चाचा जी ने भी अस्पताल में रहकर अपने भाई की देखभाल की। हालांकि इलाज के कुछ दिनों में सुबोध झा को अस्पताल से घर भेज दिया गया।
ब्रजकिशोर का मानना है कि उनके चाचा जी के इलाज में देरी के चलते उनका कैंसर तीसरी स्टेज तक पहुंचा था, शायद वक्त पर इलाज हो पाता तो दूसरी स्टेज में ही कैंसर को ठीक किया जा सकता था। इसके बाद उन्हें रेडिएशन कराने की जरूरत नहीं थी।
निष्कर्ष
एक देखभाल कर्ता कैंसर रोगी के इलाज एवं देखभाल संबंधी समस्त कार्यों के लिए जिम्मेदार होता है। कैंसर के इस सफर में चाहे रोगी का अपॉइंटमेंट लेना हो या समय पर दवा देनी हो या कोई मेडिकल जांच करवानी हो या अस्पताल में दाखिले के बाद रोगी के साथ समय बिताना हो। ऐसे में एक डाॅक्टर के साथ-साथ देखभाल कर्ता कैंसर के सफर में काफी अहम भूमिका निभाता है। अपने चाचा के ऐसे बुरे वक्त में सगे से बढ़कर उनकी हर कदम पर मदद करने वाले ब्रजकिशोर ने एक मिसाल कायम की है।